रेत माफिया लूटता रहा, वन विभाग नक्शा निहारता रहा!”
सुरेश शर्मा एवं मित्तल महरा की रिपोर्ट
अनुपपुर जिले का कोतमा वन परिक्षेत्र एक गूंगा गवाह बनता जा रहा है, जहां जंगल लुट रहा है, और जिम्मेदार अफसर ‘सीमा रेखा’ दिखाकर अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ रहे हैं। चोड़ी घाट और कुदरा इलाका, जहां से दिनदहाड़े ट्रैक्टरों में भर-भरकर रेत ले जाई जा रही है, अब किसी रहस्यमयी जगह की तरह नहीं, बल्कि सरकारी संरक्षण में खुले ‘खदान बाजार’ की शक्ल ले चुका है।
सबसे चिंताजनक और शर्मनाक पहलू यह है कि इस अवैध खनन की जानकारी रेंजर हरीश तिवारी को चार से पांच महीने पहले से थी, फिर भी उन्होंने न कोई कार्रवाई की और न ही किसी संबंधित विभाग — जैसे एसडीएम, खनिज अधिकारी या पुलिस — को इसकी सूचना दी। यह न सिर्फ विभागीय नियमों की अवहेलना है, बल्कि खुद अपराध में भागीदारी के बराबर है
कानून कहता है कि अगर कोई गतिविधि किसी अन्य विभाग की सीमा में भी हो, लेकिन उससे पर्यावरण, वन्य जीव या नदियों पर असर पड़ रहा हो — तो वन विभाग का यह प्रथम दायित्व बनता है कि वह संबंधित अधिकारियों को सूचित करे। लेकिन यहां, जब खुद विभाग मानता है कि उन्हें खनन की जानकारी थी, फिर भी सूचना न देना यह दर्शाता है कि यह चुप्पी संयोग नहीं, सांठगांठ थी।
जब रेंजर से पूछा गया कि वह कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे, तो उनका जवाब था — “जहां खनन हो रहा है, वह क्षेत्र हमारे फॉरेस्ट एरिया में नहीं आता।” लेकिन बड़ा सवाल यह है कि सीमांकन नहीं हुआ था, फिर किस अधिकार से यह निर्णय लिया गया कि वह विभागीय सीमा में नहीं आता? क्या रेंजर के पास कोई सटीक नक्शा था? क्या विभाग ने कभी वहां जाकर सीमांकन करवाया? नहीं। तो फिर यह कहना कि “वह हमारी ज़मीन नहीं है”, दरअसल एक ‘सुरक्षा कवच’ है जिसे अफसर खुद को बचाने के लिए ओढ़ लेते हैं।
DFO ने जब यह स्वीकार किया कि रेंजर को खनन की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने उच्च अधिकारियों को इसकी सूचना नहीं दी, तो यह बयान खुद DFO की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करता है। सवाल ये है कि क्या DFO को चार महीने से यह बात मालूम थी? अगर नहीं, तो यह उनकी विफलता है, और अगर थी — तो जानकारी होते हुए भी कार्रवाई न करना ‘दायित्व का त्याग’ नहीं, बल्कि ‘कर्तव्य का अपमान’ है।
रेत खनन के कारण अब नदियों के किनारे कटने लगे हैं, जलस्तर गिर रहा है, खेतों की उर्वरकता घट रही है। जानवरों के प्राकृतिक रहवास उजड़ रहे हैं, और आसपास के गांवों की हरियाली अब धूल में बदल रही है। यह सब कोई प्राकृतिक घटना नहीं है — यह एक ‘प्रशासनिक अपराध’ है, जिसमें जिम्मेदार अधिकारी या तो आंखें मूंदे बैठे हैं, या फिर बंद दरवाजों के पीछे किसी और भाषा में सुन-समझ रहे हैं।
जिन जगहों पर खनन हो रहा है, वे जंगल से बिल्कुल सटे हुए हैं। वहां की मिट्टी, वनस्पति और जैव विविधता एक असली वन क्षेत्र जैसी ही है। ऐसे में अगर अधिकारी सिर्फ नक्शा दिखाकर अपने हाथ खींच लें, तो सवाल उठता है — क्या विभाग अब जंगल की हिफाजत के लिए नहीं, सिर्फ फाइलों की हेराफेरी के लिए रह गया है?
कोतमा रेंज की हालत यह है कि एक व्यक्ति के नाम पर आठ-आठ ट्रैक्टर चल रहे हैं, कोई रोक नहीं, कोई जब्ती नहीं। गांववालों की आंखों के सामने जंगल की छाती फाड़ी जा रही है, और रेंजर साहब नक्शा देखकर कहते हैं — “यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है।” क्या अब जंगल की सुरक्षा भी Google Maps की सीमाओं पर टिकी है?
सवाल यह नहीं कि रेत कहां से निकाली जा रही है — सवाल यह है कि अगर अफसर को मालूम था कि अपराध हो रहा है, और उसने संबंधित विभागों को सूचना नहीं दी, तो क्या वह उस अपराध का हिस्सा नहीं है? विभाग का काम नक्शा दिखाना नहीं, जंगल बचाना है। और अगर वह भी नहीं कर पा रहे, तो यह सिर्फ लापरवाही नहीं, एक मौन समर्थन है — जो अपराध से भी बड़ा अपराध है।
जनता जानना चाहती है कि एक जिम्मेदार अधिकारी, जिसे अपने क्षेत्र में हर हलचल की खबर होनी चाहिए, जब महीने दर महीने तक रेत की लूट देखता रहा — और किसी को सूचित नहीं किया — तो वह किसकी सेवा कर रहा था? जंगल की या माफियाओं की?
आज जब ये बात सामने आती है कि जंगल उजड़ते रहे और अफसर जानबूझकर चुप रहे, तो यह चुप्पी सिर्फ प्रशासनिक अपराध नहीं, एक नैतिक पतन है — जिसकी गूंज आने वाली पीढ़ियों तक सुनाई देगी
इनका कहना है
वह भूमि राजस्व की है तो राजस्व के अधिकारी कार्यवाही करेंगे अवैध रेत उत्खनन की जानकारी रेंजर साहब को एसडीएम या कलेक्टर या खनिज अधिकारी को देनी चाहिए थी और अगर वह भूमि फॉरेस्ट की है और सीमांकन नहीं हुआ है तो मैं उसे पर तत्काल कार्यवाही करवाता हूंविपिन कुमार पटेल डीएफओ अनूपपुर