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27 साल का हुआ हमारा उमरिया जनप्रतिनिधियों की इच्छाशक्ति और नागरिकों के जज्बे ने दिलाया था सम्मान

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27 साल का हुआ हमारा उमरिया

जनप्रतिनिधियों की इच्छाशक्ति और नागरिकों के जज्बे ने दिलाया था सम्मान

कृष्ण कुमार उपाध्याय बांधवगढ़ उमरिया मानपुर

मध्यप्रदेश

उमरिया
आज उमरिया जिले के स्थापना की सत्ताईसवीं वर्षगांठ है। यह दिन वर्षों पूर्व खोए हुए सम्मान को पाने का यादगार है। साथ ही इस बात का प्रतीक भी, कि यदि जनप्रतिनिधियों मे इच्छाशक्ति और नागरिकों मे जज्बा हो, तो हर सरकार को झुकना पड़ता है

उन स्मृतियों को याद करें, कि किस तरीके से प्रदेश सरकार द्वारा 16 मे से 10 जिलों की घोषणा की गई और सूची मे उमरिया का नाम नदारत होने की खबर मिलते ही तत्कालीन विधायक अजय सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। फिर कैसे नागरिक अपना काम धंधा छोड़ कर सडक़ो पर उतर पड़े

हफ्तों बाजार बंद, अनशन के दौर चले। खून से चि_ियां लिखी गई। फिर लोगों ने भोपाल जा कर तब के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से चर्चा की और उन्होंने भी जनभावनाओं की कद्र करते हुए वहीं पर स्व.एमएस सिंह देव की अध्यक्षता मे एक सदस्यीय आयोग बना दिया

जिनकी रिपोर्ट सरकार तक पहुंचने के बाद अंतत: 6 जुलाई 1998 का वो दिन आ गया, जिसे देखने की आस लिए कई पीढिय़ां विदा हो गई। उमरिया जिले के गठन की अधिसूचना जारी होते ही सावन के मौसम मे दीवाली और होली मनाई गई

मंजिल तक नहीं पहुंचा सफर
जिला बनने के बाद एक सपनो के सफर की शुरुआत तो हुई, पर वो आज तक मंजिल नहीं पा सका। जरूरत थी, वर्षों से पिछड़े क्षेत्र को विकास की मुख्यधारा से जोडऩे की। कुछ साल तक ऐसा हुआ भी, परंतु फिर सब कुछ थम गया। बल्कि यू कहें कि जो था, वह भी हाथ से जाने की नौबत आ गई। स्वास्थ्य और शिक्षा तो रसातल मे जाती ही चली गई। जानकार मानते हैं कि तहसील के समय भले ही ऐसे भवन नहीं थे, पर डॉक्टर आज से कहीं ज्यादा बेहतर थे। यही हाल रेल सेवाओं का रहा। एक समय उमरिया हर ट्रेन रुकने के लिए मशहूर था। आज जिला मुख्यालय होने के बावजूद नगर के स्टेशन से करीब 24 यात्री गाडिय़ां बिना रुके मुंह चिढ़ाते हुए गुजर जाती हैं।

नहीं बनी औद्योगिक योजना
जिला बनने के बाद सबसे ज्यादा उम्मीद उद्योग और व्यापार को लेकर थी। लोगों को लगा कि मुख्यालय के बड़े-बड़े अधिकारी और जनप्रतिनिधियों के समन्वय से कल-कारखानों की योजनाएं बनेंगी। कालरियों, पावर प्लांट के अलावा कृषि व पर्यटन पर आधारित नए उद्योग स्थापित होंगे, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और युवाओं, मजदूरों को पलायन जैसी शर्मनाक विभीशिका से मुक्ति मिल सकेगी, लेकिन हुआ इससे ठीक उलट। इस क्षेत्र मे कोई ठोस पहल न होने और निजीकरण की नीति के कारण कोई नया उद्योग तो नहीं लगाए बल्कि परंपरागत कोयला खदाने भी धन्नासेठों ने खरीद लीं। जो बची हैं, वे भी कुछ सालों की मेहमान हैं।

पर्यटन से बदल सकती तस्वीर
बेरोजगारी जिले के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। लोग रोजगार के लिए किस कदर दूसरे प्रांतों में भटकने को मजबूर हैं, इसका खुलासा कोरोना महामारी के दौरान हुआ था, जब हजारों की संख्या मे जिलेवासियों को वापस लौटना पड़ा। सरकारी योजनाओं की खैरात बाटने से अच्छा है, कि नागरिकों को नौकरी और कारोबार के जरिये सक्षम बनाया जाय। इस कार्य मे पर्यटन का बड़ा रोल हो सकता है। जिले के बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान की देश और विदेश मे अपनी अलग छाप है। इसे और भी धार देने की जरूरत है। सैलानियों की सुविधा के लिए सभी ट्रेनों का स्टापेज हो। मुख्य स्टेशन पर टाइगर रिजर्व के अनुरूप व्यवस्था की जाय।

मेडिकल कॉलेज की पहल नहीं
उद्योग के साथ-साथ उच्च शिक्षा के क्षेत्र मे भी जिले के साथ दोहरा बर्ताव हो रहा है। हाल ही मे सरकार ने कई जिलों मे मेडिकल कॉलेज खोले पर उमरिया मे इसे लेकर कोई पहल नहीं हुई। लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है कि उमरिया जिले मे एसईसीएल को समूचे कोल ब्लॉक सौंप कर नई कालरियां खोली जाएं। इसी तरह यहां की वनोपज और फसलों के अनुरूप उद्योग स्थापित हों।

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