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रियासत काल से वनांचल वासियों मे पूज्यनीय है मां महामाया और माता चांग देवी

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एमसीबी। जिले के मनेन्द्रगढ़ निवासी इतिहासकार डॉ विनोद पांडेय बताते हैं कि सरगुजा समूह की रियासतों में सर्व मंगला, महामाया, भवानी, खुड़िया रानी, सिसरंगा, रमदइया,कुदरगढ़ी, महारानी के नाम से इस क्षेत्र में देवी पूजनीय थी। ना केवल शासक वर्ग में बल्कि वनवासी जनजातीय के द्वारा भी भिन्न-भिन्न रूपों में माता की पूजा आराधना प्राचीन समय से किया जाता रहा है। मनेंद्रगढ़ चिरमिरी भरतपुर जिले में चांगदेवी एवं चनवारीडॉड रतनपुर में माँ महामाया की पूजा अर्चना रियासत काल से की जा रही है।
चांगदेवी जनकपुर मनेंद्रगढ़ जिला मुख्यालय से 120 किलोमीटर दूर कठौतिया- केल्हारी जनकपुर होकर भगवानपुर चांगदेवी के मंदिर पहुंचा जाता है। यह चांगभखार रियासत ही नहीं बल्कि कोरिया नरेश की कुलदेवी भी है। कोरिया और चांगभखार के अधिश्वरों का कुल एक ही है। वास्तव में प्राचीन समय में मूर्ति 6 सेंटीमीटर मोटी एक पत्थर की शीला थी जिसे मूर्ति का रूप दिया गया है। यह प्रतिमा कलचुरी शिल्प कला की प्रतीक मानी जाती है जिसे कालांतर में स्थानीय जनों द्वारा मंदिर का स्वरूप दिया गया। इस वर्ष नवरात्रि में भी 205 घी के तथा 110 तेल के ज्योति कलश स्थानीय भक्तों द्वारा अपने मनोकामना को पूर्ण करने के लिए जलाए गए हैं।

मां महामाया का मंदिर चनवारीडांड खडगवा

जिला मुख्यालय से लगभग 45 किलोमीटर दूर मनेंद्रगढ़, चिरमिरी होकर चनवारीडांड महामाया मंदिर पहुंचा जाता है। इस मंदिर के विषय में किवदंती है कि खडगवा जमीदार राघव प्रताप सिंह को रतनपुर बिलासपुर मां महामाया का पूजा अर्चना करने के लिए जाना पड़ता था। खडगवां जमीदार राघव प्रताप सिंह के पिता को देवी ने सपने में आदेश दिया कि तुम्हारे क्षेत्र के लोगों को मेरे दर्शन करने के लिये इतनी दूर जाना पड़ता है। यदि तू मेरी एक मूर्ति बनाकर यहां ले आए तो मैं उसमें विराजमान हो जाऊंगी जिसे तुम अपने क्षेत्र में स्थापित कर मेरी पूजा अर्चना करना। उसके बाद जमीदार द्वारा मूर्ति को खडगवां लाने का प्रयास किया गया लेकिन मूर्ति किन्ही कारण से खड़गवा नहीं लाई जा सकी तथा वहीं मूर्ति बनाकर जमीदार तथा स्थानीय जनो द्वारा पूजा अर्चना करना प्रारंभ कर दिया गया। इस मंदिर में प्रतिदिन बैगा पुजारी द्वारा पूजा किया जाता है। कहा जाता है कि नवरात्रि की अष्टमी में स्थानीय जमींदार परिवार द्वारा पूजा किया जाता है। इस वर्ष 1470 घी एवं तेल के ज्योति कलश की स्थापना स्थानीय भक्तजनों द्वारा की गई है। दिनों दिन इस मंदिर की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है तथा आसपास के अलावा अन्य जिलों के लोग भी बड़ी संख्या में दर्शन करने आते हैं।

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