कोतमा का ‘बारूद का गोदाम’: जब प्रशासन की चुप्पी, जनता की कब्र बन जाए
– रिपोर्ट: संतोष चौरसिया
कोतमा।
नगर के दिल में, जहां लोगों की सांसें बसती हैं — वहीं प्रशासन ने बारूद रख छोड़ा है। नाम है अकरम गैस एजेंसी, मगर असल में यह “गैस एजेंसी” नहीं, कोतमा की जनता के सिर पर रखा बारूद का गोदाम बन चुकी है।
घनी आबादी के बीच, बच्चों के खेलने की जगह के पास, बुजुर्गों के टहलने की राह के बगल में — सैकड़ों सिलेंडरों का भंडारण और वितरण! यह दृश्य किसी फिल्म का नहीं, बल्कि जीवंत लापरवाही का वह अध्याय है, जिसे देखने के बाद भी शासन-प्रशासन ने आंखें मूंद ली हैं।
नगर पालिका की भूमिका — अनुमति के नाम पर मौत का लाइसेंस
सबसे पहले सवाल नगर पालिका पर उठता है — जिसने इस एजेंसी को आबादी के बीच संचालन की इजाजत देकर मानो “जनता की जान” को कागज़ पर गिरवी रख दिया है।
यह वही पालिका है जो साल-दर-साल फायर सेफ्टी शुल्क, नगर कर, और अनाप-शनाप टैक्स वसूलती है, मगर जब असली सुरक्षा की बारी आती है तो उसका दायित्व हवा हो जाता है
क्या नगर पालिका के किसी अधिकारी ने कभी जाकर देखा कि इतनी घनी बस्ती में गैस सिलेंडरों का गोदाम किस खतरे को जन्म दे सकता है?
अगर एक भी सिलेंडर फट गया, तो आधा मोहल्ला मिट्टी में मिल जाएगा — और तब भी शायद रिपोर्ट में लिखा जाएगा, “दुर्घटना से जनहानि”
फायर विभाग और नागरिक आपूर्ति — गद्दियों पर सुस्ते प्रहरी
फायर ब्रिगेड का दायित्व है सुरक्षा सुनिश्चित करना, लेकिन यहां तो “फायर सेफ्टी” सिर्फ कागज़ पर है, ज़मीन पर नहीं।
ना किसी ने जांच की, ना कोई निरीक्षण हुआ। आग लगने पर पानी फेंकने वाले यही लोग अगर पहले सचेत हो जाते, तो आज यह स्थिति पैदा ही न होती।
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग का रवैया भी कम शर्मनाक नहीं। सिलेंडरों की मात्रा और गुणवत्ता की जांच उनकी जिम्मेदारी थी, लेकिन उन्होंने भी आंख मूंद ली।
जनता खुलेआम ठगी जा रही है — तय मात्रा से कम गैस देकर और फिर भी पूरी कीमत वसूल कर। यह न केवल भ्रष्टाचार है, बल्कि जनजीवन के साथ खुला खिलवाड़ है।
जिला प्रशासन — मौन दर्शक या मौन साझेदार?
बार-बार शिकायतों के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं। शिकायतें दर्ज हुईं, आवाज़ें उठीं, लेकिन प्रशासन की दीवारों तक वे गूंज पहुंची ही नहीं।
आखिर क्यों? क्या यह सब कुछ मिलीभगत से नहीं चल रहा?
जब हर विभाग अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है, तो सवाल उठना लाज़मी है — क्या यह मौन सिर्फ लापरवाही है या साझीदार अपराध?
जनता की जान से बड़ा क्या है?
नगर पालिका, फायर विभाग, नागरिक आपूर्ति और जिला प्रशासन — चारों विभागों की यह संयुक्त चुप्पी अब जनता के गले की फांस बन चुकी है।
आज अगर कोई हादसा होता है, तो यह “दुर्घटना” नहीं बल्कि “प्रशासनिक हत्या” कहलाएगी।
हर वह अधिकारी दोषी होगा जिसने आंखें मूंदी, हर वह कर्मचारी अपराधी होगा जिसने चुप्पी ओढ़ ली।
अब फैसला चाहिए, फाइल नहीं
अगर सरकार और जिला प्रशासन में जरा भी जिम्मेदारी बची है, तो इस एजेंसी को तुरंत घनी आबादी से बाहर स्थानांतरित किया जाए।
यह सिर्फ गैस एजेंसी नहीं — एक ऐसा समय बम है जो किसी भी वक्त फट सकता है।
और जब यह फटेगा, तो सिर्फ दीवारें नहीं गिरेंगी, प्रशासन की साख भी राख हो जाएगी।
अब वक्त है कि कोतमा की जनता जागे और जवाब मांगे —
क्योंकि जब सत्ता सो जाती है, तो आवाज़ ही एकमात्र हथियार बनती है।


















