जंगल लुट रहा, रेंजर लुका-छिपी खेल रहा — रेत के आगे वन विभाग बौना, हरीश तिवारी की चुप्पी शर्मनाक
मित्तल महरा
सुरेश शर्मा की स्पेशल रिपोर्ट
अनुपपुर जिले के कोतमा वन परिक्षेत्र में चोड़ी घाट और कुदरा क्षेत्र अब रेत माफियाओं के लिए ‘ओपन मार्केट’ बन चुका है। जंगल से सटा यह क्षेत्र दिनदहाड़े लूटा जा रहा है, लेकिन जिम्मेदार अधिकारी चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। हर रोज़ आठ-आठ ट्रैक्टर रेत से लदकर गांवों से गुजरते हैं, लेकिन वन विभाग और पुलिस दोनों मौन हैं। यह खामोशी अब लापरवाही नहीं, बल्कि मिलीभगत का सुबूत बन चुकी है
इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला रवैया रेंजर हरीश तिवारी का है, जिनके बयान अब वन रक्षक की नहीं, किसी प्रेस प्रवक्ता की तरह लगते हैं। जब उनसे क्षेत्र में हो रहे अवैध खनन पर सवाल पूछा गया, तो उन्होंने बेहिचक कहा — “वह क्षेत्र फॉरेस्ट नहीं है, वह राजस्व भूमि है।” ये शब्द एक जिम्मेदार अफसर के नहीं, एक ‘तैयार किए गए बचाव पत्र’ जैसे लगे, जिसे माफियाओं की भाषा में पढ़ा गया हो।
अब सवाल ये है कि क्या हरीश तिवारी को बिना सीमांकन के यह अधिकार है कि वे तय कर दें कि भूमि वन की है या नहीं? जिस ज़मीन पर खुद विभाग ने सीमांकन नहीं करवाया, उसे लेकर ऐसे दावे करना क्या माफिया की मदद करने जैसा नहीं है? हकीकत ये है कि जहां खनन हो रहा है, वह इलाका जंगल से बिल्कुल सटा हुआ है। वहां की पारिस्थितिकी, मिट्टी की संरचना, नमी और जैव विविधता सब वन क्षेत्र जैसे ही हैं — फिर तिवारी साहब किस ‘कागज़ी चश्मे’ से उसे अलग देख पा रहे हैं?
स्थानीय लोगों की मानें तो पूरन केवट, ओमप्रकाश और युवराज जैसे चेहरों की अगुवाई में अब अवैध रेत खनन एक संगठित नेटवर्क बन चुका है गांववालों की आंखों के सामने जंगल की छाती फाड़ी जा रही है। ट्रैक्टरों की कतारें, धूल उड़ाती सड़कों पर दिन में कई बार दिखती हैं। लेकिन वन अमला वहां मौजूद ही नहीं रहता पूछो तो जवाब आता है — “जगह हमारी नहीं है
आज ही की घटना लें — एक-एक व्यक्ति के नाम पर आठ-आठ ट्रैक्टर चोरी हुई, लेकिन न कोई कार्रवाई हुई, न कोई रोक न तो कोई जब्ती, न कोई एफआईआर क्या अब विभाग का काम केवल मैप देखने तक सीमित रह गया है?
रेंजर तिवारी जैसे अधिकारी यदि इस तरह से बयान देते रहेंगे, तो माफियाओं को रोकने वाला कौन रहेगा? क्या ये विभाग जंगल की रक्षा के लिए बनाया गया है या जमीन की लुका-छिपी खेलने के लिए? तिवारी साहब का ये बयान कि “रेत जहां से निकाली जा रही है, वह विभागीय सीमा में नहीं आती”, अब जनता के बीच मज़ाक का विषय बन चुका है। क्या अब जंगल की रक्षा का काम भी “सीमा रेखा” पर टिका रहेगा? अगर ज़मीन विभाग की न भी हो, तो क्या पर्यावरण की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी खत्म हो जाती है?
चोड़ी घाट में अवैध खनन से नदियों के किनारे कट रहे हैं, जलस्तर गिर रहा है, खेती की ज़मीन बंजर हो रही है। ये सब कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि हरीश तिवारी जैसे ‘रेंजर-प्रवक्ताओं’ की लापरवाही से उपजा ‘आपराधिक विकास’ है
पुलिस की हालत भी कुछ खास अलग नहीं है भालूमाड़ा थाना क्षेत्र में इतनी बड़ी गतिविधियां हो रही हैं और पुलिस ‘गुमशुदा’ सी दिखाई देती है गांवों से होकर निकलते ट्रैक्टर उनके नज़दीकी चौकियों को पार करते हैं, लेकिन कोई रोक-टोक नहीं। नतीजा
माफिया बेखौफ हैं और आम जनता खामोश
सबसे चिंताजनक बात ये है कि रेंजर हरीश तिवारी की चुप्पी अब चुप्पी नहीं रही, यह सहमति बन चुकी है। कोई भी जिम्मेदार अधिकारी बिना सीमांकन, बिना पड़ताल, सिर्फ अपने बयान से माफियाओं को हरी झंडी नहीं देता — जब तक वो अंदर से तैयार न हो
इस पूरे मामले में यह साफ़ झलकता है कि वन विभाग, खासकर कोतमा रेंज, अब माफिया के सामने सिर झुका चुका है। उनकी ड्यूटी अब जंगल बचाने की नहीं, विभाग की छवि बचाने की रह गई है — और वो भी झूठी
यदि शासन-प्रशासन अब भी नहीं जागा, तो आने वाले कुछ वर्षों में यह क्षेत्र पर्यावरणीय मरुस्थल में बदल जाएगा पेड़ उजड़ जाएंगे, नदियां सूख जाएंगी और जंगल सिर्फ नक्शों में बचेंगे
और जब आने वाली पीढ़ियां सवाल पूछेंगी कि हमारे जंगलों को किसने लूटा, तो माफियाओं से ज़्यादा जिम्मेदार उन अफसरों को ठहराया जाएगा, जो कुर्सी पर बैठकर “हमारी ज़मीन नहीं थी” जैसे बयान देकर अपनी आत्मा बेचते रहे